संथाली भाषा में हूल का अर्थ होता है “विद्रोह” ।शब्द से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि विद्रोह करने का दिन ही हूल दिवस के रूप में मनाया जाता है ।वैसे तो हूल दिवस को हूल क्रांति ,संथाल विद्रोह आदि नामों से पुकारा जाता है ।
हूल के पूर्वपरिस्थिति
हूल क्रांति के पूर्व यह क्षेत्र जो आज संथाल परगना के नाम से जाना जाता है बंगाल प्रेसिडेंसी के अन्दर आता था ।यह क्षेत्र पहाड़ियाँ एवं जंगलों से आच्छादित था जहाँ आना जाना काफी कठिन था पहाड़ की तलहटी में रहने वाले समुदाय को पहाड़िया नाम से पुकारा जाता था। ये लोग जंगल झाङियों को काटकर खेती योग्य बनाते थे और उस पर अपना स्वामित्व समझते थे ।ये लोग काफी भोले भाले होते थे पर किसी से डरते नहीं थे ।वे अपने जमीन का राजस्व किसी को नही देते थे ।इधर इस्ट इंडिया कंपनी अपना राजस्व बढाने के लिए जमींदारों की फौज तैयार कर चुकी थी ।ये जमींदार जबरन लगान वसुली करते थे ।इससे पहाड़िया लोग हमेशा भयभीत रहते थे ।लगान चुकाने के लिए इन्हें साहुकार से कर्ज़ लेना पङता था ।ये साहुकार लोग भी इस कदर अत्याचार करते थे कि उन्हें कर्ज़ चुकाने मे कई पीढ़ियाँ गुजर जाती थीं पर कर्ज़ समाप्त नहीं होता था ।इस इलाके में रहने वाले प्रायः आदिवासी समुदाय के लोग थे जिन्हें संथाल के नाम सेजाना जाता है ।संथालियों में बोंगा देवता की पूजा की जाती है जिनके हाथ में बीस अंगुलियाँ होती हैं ।
आन्दोलन का प्रारंभ
झारखंड राज्य के वर्तमान साहेबगंज जिला के बरहेट प्रखंड के भोगनाडीह गाँव के भूमिहीन निवासी चुन्नी मांडी जो वहाँ के ग्रामप्रधान थे ,के चार पुत्र सिद्धू ,कान्हू ,चाँद और भैरव में से सिद्धू को बोंगा ने स्वप्न मे कहा कि “जुमींदार,महाजन ,पुलिस ,राजदेन आमला को गुजुकमाङ “जिसका अर्थ है जमींदार ,महाजन ,पुलिस और सरकार के आमला का नाश हो । चूँकि संथाल लोग बोंगा की ही पूजा अर्चना करते थे ।इसलिए इस बात पर विश्वास कर चारो भाइयों ने इस स्वप्न को प्रचारित किया और लोगों को यह बताया कि अब जमींदार ,पुलिस ,महाजन और सरकारी अमलों का विनाश होने वाला है ।इधर सरकार मालगुजारी वसुली को बङी बेरहमी से अंजाम दे रही थी ।चारो तरफ अत्याचार का माहौल था जिसके कारण लोगों में सिद्धू के स्वप्न वाली बात पर सहज ही विश्वास होने लगा ।संथाल लोग परंपरागत तरीके से डुगडुगी पीटकर इसका प्रचार प्रसार करने लगे ।लोगों ने साल वृक्ष की टहनियों को लेकर एक गांव से दुसरे गांव की यात्राएँ की ।अततः यह तय हुआ कि 30 जुन 1855 को समस्त संथाल के लोगों को ग्राम भोगनडीह आने का निमंत्रण डुगडुगी पीटकर भेजा जाय ।
30 जुन 1855 को लगभग 400 से अधिक गाँव के लगभग 50000 से भी अधिक लोग भोगनाडीह ग्राम पहुँचे ।वहीं पर सिद्धू ने संथालों के लिए यह एलान किया कि करो या मरो और अंग्रेजों के लिए अंग्रेज हमारी माटी छोड़ो । अब हम मालगुजारी नहीं देगें ।इससे घबरा कर अंग्रेजी सरकार ने विद्रोहियों का दमन प्रारंभ किया ।अंग्रेजी सरकार की मूल नीति फूट डालो राज करो यहाँ भी कामयाब रही ।सरकार ने सिद्धू ,कान्हू को पकड़ने के लिए 10000 हजार रुपए इनाम की घोषणा की । अंग्रेजी हुकुमत ने सिद्धू और कान्हू को पकड़ने के लिए जमींदारों के साथ अपने सिपाहियों को भेजा जिसे संथालों ने मौत के घाट उतार दिया ।घबरा कर सेना को बुलाया गया ।फिर भी स्थिति नियंत्रण में होता न देख कर मार्शल ला लगाया गया ।स्थिति दिनों दिन बदतर होती जा रही थी ।विद्रोहियों पर नियंत्रण पाने के लिए क्रूरतापूर्वक कारवाई जारी थी तभी
इधर बहराइच में चाँद और भैरव को अंग्रेजों ने मौत के गले चढ़ा दिया तो दुसरी तरफ सिद्धू और कान्हू को पकड़ कर भोगनाडीह गाँव में ही पेङ से लटका कर 26 जुलाई 1855 फाँसी की सजा दी ।इन्हीं शहिदों की याद में प्रत्येक साल 30 जुन को हूल दिवस मनाया जाता है ।
आन्दोलन का परिणाम
यह आन्दोलन लगभग जनवरी 1856 मे समाप्त हुआ और तब जाकर संथाल परगना का निर्माण हुआ जिसका मुख्यालय दुमका बना ।इस महान क्रांति के फलस्वरूप ही जब 1900 मे मैक पेरहांस की अध्यक्षता बंदोबस्त अधिनियम बना तो उसमें यह प्रावधान किया गया कि आदिवासी की जमीन कोई आदिवासी ही खरीद सकता है । क्रेता एवं विक्रेता का निवास एक ही थाने के अंतर्गत होना चाहिए ।इन शर्तों को पूरा करने के बाद आदिवासी जमीन का हस्तांतरण करने का प्रावधान है ।संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम जब 1949 में पारित किया गया तो 1900 के बंदोबस्ती नियम के इस शर्तें को धारा 20 मे जगह दी गयी जो आज भी लागू है ।
।इस महान क्रांति में लगभग 20000 लोगों को मौत के घाट उतारा गया ।एक अंग्रेज इतिहासकार हंटर ने लिखा है कि आदिवासियों के इस बलिदान को लेकर कोई भी अंग्रेज सिपाही ऐसा नहीं था जो शर्मिंदा न हुआ हो ।
आन्दोलन का महत्व
वैसे तो 1857 के सिपाही विद्रोह को इतिहासकारों ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रथम संग्राम के रुप मे मान्यता प्रदान की परंतु हूल विद्रोह भी काफी व्यापक एवं प्रभावशाली विद्रोह था ।1857 का विद्रोह सिपाहियों के द्वारा शुरु किया गया जिसमें कुछ राज घरानों के साथ ही आम लोगों की भागीदारी बढी ।परंतु संथाल विद्रोह एक आम आदमी से भी नीचे जीवन बसर करने वाले आदिवासियों के द्वारा शुरु किया गया जो पूर्णतया एक जन आन्दोलन था ।1857 के सिपाही विद्रोह में विद्रोहियों के पास तत्कालीन अस्त्र शस्त्र थे एवं उनके पास संचार माध्यम के साथ आवागमन के भी साधन थे ।जबकि संथाल विद्रोहियों के पास अपने परंपरागत हथियार ही थे । संचार माध्यम एवं आवागमन के मामले में जहाँ संथाल परगना स्वतंत्रता के बाद भी काफी पीछङा हुआ है ।वैसे में 1855 में इसकी कल्पना करना भी बेइमानी होगी ।1855 के संथाल विद्रोह मे 50000–60000 हजार लोगों का भाग लेना इस आन्दोलन की व्यापकता को दर्शाता है ।जबकि आज भी संथाल परगना का जनसंख्या घनत्व काफी कम है ।आन्दोलन का उद्धेश्य “ करो या मरो और अंग्रेजों हमारी माटी छोङो “तो 1942 में महात्मा गाँधी द्वारा शुरु किए गये आन्दोलन के समकक्ष लाकर खङा कर देता है और वह भी करीब एक सौ साल पहले ।इस तरह मुझे तो लगता है जैसे आज स्वतंत्र भारत में भी जिस तरह प्रचुर संपदा के मालिक होने के बावजूद भी झारखंड की आवाज अनसुनी कर दी जाती है ठीक उसी प्रकार संथाल विद्रोहियों की गूंज को भी तत्कालीन इतिहासकारों ने अनसुनी कर दी ।
बड़े भाई सिधो मुर्मू को बरहेट प्रखंड स्थित पंचकठिया में एक बरगद के पेड़ में अंग्रेजों द्वारा फाँसी पर लटका दिया गया था। आज भी वो पेड़ अवस्थित है तथा उसी की याद में प्रत्येक वर्ष 30 जून को “हूल दिवस” के रूप में एक विशाल मेला का आयोजन होता है , जहां देश के विभिन्न राज्यों से आदिवासी बहुल आते हैं। उस दिन राजनीतिक दल भी अपनी अपनी टोली के साथ पंचकठिया स्थित बरगद के पेड़ के पास आते है तथा पुष्प चढ़ा कर सिधो-कान्हू के जन्म स्थल भोगनाडी को पैदल यात्रा करते है।
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